रूपकुंड (How to Reach Roopkund Trek)
रूपकुंड
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आइये ले चलते है आपको उत्तराखंड के एक और देवीय और प्रयटक स्थल पर जिसका नाम है रूपकुंड। चमोली जिले के सीमांत देवाल विकासखंड में समुद्रतल से 16499 फीट की ऊंचाई पर स्थित प्रसिद्ध नंदादेवी राजजात मार्ग पर नंदाघुंघटी और त्रिशूली जैसे विशाल हिम शिखरों की छांव में स्थित है मनोरम रूपकुंड झील।
पौराणिक मान्यता के अनुसार अनुपम सुंदरी हिमालय (हिमवंत) पुत्री देवी नंदा (पार्वती) जब शिव के साथ रोती-बिलखती कैलास जा रही थीं, तब मार्ग में एक स्थान पर उन्हें प्यास लगी। नंदा के सूखे होंठ देख शिवजी ने चारों ओर नजरें दौड़ाईं, लेकिन कहीं भी पानी नहीं था। तब शिवजी ने अपना त्रिशूल धरती पर मारा, जिससे वहां पानी का धारा फूट पड़ी। नंदा जब प्यास बुझा रही थीं, तब उन्हें पानी में एक रूपवती स्त्री का प्रतिबिंब नजर आया, जो शिव के साथ एकाकार था। नंदा को चौंकते देख शिव उनके अंतर्मन के द्वंद्व को समझ गए और बोले, यह तुम्हारा ही रूप है। तब से ही यह कुंड रूपकुंड, शिव अर्धनारीश्वर और यहां के पर्वत त्रिशूल व नंदाघुंघटी कहलाए। जबकि, यहां से निकलने वाली जलधारा का नाम नंदाकिनी पड़ा।
अब हमारा सफ़र शुरू होता है द्वारका दिल्ली से। काफी दिनों से हम दोस्तों (मनोज पालीवाल, महिपाल सिंह पुंडीर, मनोज सिंह नेगी और अर्जुन सिंह नेगी) ने रूपकुंड जाने की पूरी प्लानिंग बना ली थी। रूपकुंड जाने की पूरी जानकारी हमें श्री शंकर खुलबे जी ने पहले ही दे दी थी और हमें ट्रेकिंग टेंट श्री धन सिंह मेहता जी ने दे दिया था। और आखिर वो समय आ गया था जब हम दिल्ली से रूपकुंड के लिए निकले। 25 सितम्बर बुधवार की रात्रि 10 बजे हम दिल्ली से रूपकुंड के लिए लिए निकले और अगले 26 सितम्बर बृहस्पतिवार को शाम 3 बजे लोहाजुंग से होते हुवे कुलिंग पहुँचे। लोहाजुंग में हमारी मुलकात श्री पान सिंह जी से हुई, पान सिंह जी को हमने पहले ही फ़ोन करके अवगत करवा दिया था की हम साथी रूपकुंड ट्रेक पर आ रहे है। पान सिंह जी ने हमारा स्वागत लोहाजुंग में बहुत गर्म जोशी से किया और अपने भांजे बक्तावर को हमारे साथ उनके गाँव दिदना के लिए भेज दिया। कुलिंग से दिदना तक का सफ़र काफी थकावट भरा था लेकिन सफ़र के दौरान बक्तावर ने हमें रूपकुंड और उसके बीच में आने वाले जगहों के बारे में रोचक जानकारी दी जिससे दिदना तक चढ़ाई का सफ़र का पता नहीं चला। 5 किलोमीटर तक का सफ़र बक्तावर के साथ बहुत यादगार रहा। शाम करीब 6 बजे हम दिदना गाँव पहुचे जहाँ हमारी मुलाकात राजू ( पान सिंह जी का लड़का और हमारा गाइड) और उसकी माता जी से हुवी। घर पहुचते ही राजू ने हमें शुद्ध पहाड़ों से निकला हुवा ठंडा पानी पिलाया जिससे हमारी पूरी थकावट पलभर में ही मिट गयी। उसके थोड़ी देर बाद माता जी ने गरमा गर्म चाय पिला कर थोड़े से बचे कुचे दर्द और थकावट को भी गायब कर दिया। थोड़ी देर आराम करने के बाद रात्रि करीब 8 बजे माता जी ने गरमा गर्म खाना परोसा (रोटी, शब्जी और दाल)। हम सभी ने आवश्यकता से से अधिक खाना खाया क्यूँ की खाना बहुत स्वदिस्ट था। हँसी मजाक के साथ वो शाम हमारी बहुत शानदार गुजरी और हमें लगा ही नहीं की हम राजू के परिवार से पहली बार मिल रहे हैं। रात करीब 10 बजे हम सभी अपने अपने बिस्तर पर चले गए क्यूँ कि अगले दिन का सफ़र बहुत लम्बा था।
27 सितम्बर शुक्रवार को सुबह राजू ने हमें जगाया और हमें चाय हमारे बिस्तर पर ही दे दी। चाय पीकर जब हम कमरे से बाहर निकले तो बाहर का नजारा देखकर हम बहुत खुश हुवे। चारों तरफ हरियाली, ऊंचे ऊंचे पहाड़ और बादलों से घिरा दिदना गाँव वाकई में बहुत सुन्दर लग रहा था। करीब 8 बजे हमने नास्ता किया और 9 बजे हम अपने आगे के सफ़र के लिए निकल पड़े। दिदना गाँव से लगभग 2 किलोमीटर चलने के बाद हम “तोल पानी” पहुचें। पौराणिक मान्यता के अनुसार नंदा राजजात यात्रा के दौरान पानी की कमी होने की वजह से वहां पानी को तोल तोल कर दिया गया था इसलिए उस जगह का नाम तोल पानी पड़ा। थोड़ी देर आराम करने के बाद हम आगे के सफ़र के लिए निकले। “तोल पानी” से आगे करीब 2 किलोमीटर चलते बुरांश, बांज के जंगलों से होते हुवे, अनेकों प्रकार के पेड़ पौधे देखते और एकदम खड़ी चढ़ाई चढ़ते चढ़ते हम तकीबन 12 बजे आली टॉप पर पहुचें। आली टॉप से दिदना गाँव, लोहाजुंग, कुलिंग और बहुत से दूर दराज के जगह एक दाम साफ़ दिखाई दे रहे थे।
धीरे धीरे चलते-चलते, आराम करते और खाते पीते हम हम आली टॉप से “आली बुग्याल” पहुचें। “आली बुग्याल” पहुँचने से पहले ही हलकी फुलकी बारिश शुरू हो गयी थी लेकिन “आली बुग्याल” पहुँचते ही जैसे हुमारी पूरी थकान गायब हो गई हो, चारों तरफ घास के बड़े बड़े मैदान, जहाँ तक हमारी नजर गयी घास के मैदान ही नजर आ रहे थे। “आली बुग्याल” एशिया का सबसे लम्बा बुग्याल है। आली बुग्याल में हमें कई जानवर देखने को मिले जैसे घोड़े (बड़े बड़े बालों वाले), गाय, भेंस, बकरी, भेड़ और कई अन्य। नजदीकी गाँव के चरवाहे अकसर अपने अपने जानवरों को बुग्यालों में चराने के लिए लेकर आते हैं। आली बुग्याल के आखिरी छोर पर हम सभी ने दिन का भोजन किया, जो कि राजू अपने घर से बना कर लाया था। आलू के पराठों के साथ अचार और गरमा ग्राम चाय वाकई बहुत मजेदार था।
तकरीबन 3 बजे हम “आली बुग्याल” से “बेंदिनी बुग्याल” की तरफ चल पड़े और 5 बजे के करीब हम बेंदिनी बुग्याल पहुँच गए थे। बेंदिनी बुग्याल 12000 फुट की ऊचाई पर है जहाँ पर वेदों को लिखा गया था।
बेंदिनी बुग्याल (12000 फुट) से आगे का रास्ता चढ़ाई वाला था जिसको पार करते ह्वुए हम घोडा लौटानी पहुचें। “घोडा लौटानी” के बारे में कहा जाता है कि पहले घोड़े, खच्चर वहीँ तक जा पाते थे क्यूँ की आगे का रास्ता बहुत दुर्गम भरा था। लेकिन अब घोड़े और खच्चर भखुवाबासा तक जाते है। घोडा लोटानी से आगे 2 किलोमीटर का रास्ता एकदम सरल था जिसको पार करते हम “पातुर नचैणियां” पहुचें। करीब 7 बजे हम “पातुर नचैणियां” पहुचें और वहां फारेस्ट विभाग वालों के हट में हमने अपना डेरा जमाया। पातुर नचैणियां पहुचंते ही राजू ने खाने का इंतजाम किया और तकरीबन 9 बजे हमने रात का खाना खाया और फिर अपने अपने स्लीपिंग बैग में सो गए।
28 सितम्बर शनिवार को सुबह उठने के बाद हमने “पातुर नचैणियां” का भ्रमण किया और सुबह का नास्ता (दलिया और अंडे) करने के बाद आगे का सफ़र के लिए तैयार हो गए। दुर्गम रास्ते और ऊंची चढ़ाई को पार करते हुवे हम कैलो विनायक मंदिर पहुंचे। कैलो विनायक श्री गणेश जी का दूसरा नाम है। भगवन श्री गणेश जी का आशीर्वाद लेने के बाद हमने आगे का सफ़र शुरू किया। कैलो विनायक से आगे का रास्ता एकदम सरल और सीधा था। रास्ते में हमने भरड (हिरण की प्रजाति) का एक झुण्ड देखा। भरड दिखने में बहुत सुन्दर होते है और ये प्रजाति ऊंची और ठंडी जगहों पर ही पाए जाते है। लगभग 2 किलोमीटर चलने के बाद हम भखुवाबासा पहुंचे। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भखुवाबासा में माता पार्वती ने अपने शेर को वहां पर छोड़ दिया था क्यूँ की उनको आगे का सफ़र शंकर भगवन के साथ अकेले ही तय करना था। भखुवाबासा में वनविभाग वालों के हट बने हुवे जहाँ पर प्रयटक विश्राम कर सकते है और साथ ही अपना टेंट भी लगा सकते है।
भखुवाबासा में थोड़ी देर आराम करने के बाद हम रूपकुंड की तरफ निकल पड़े। ऊंचे ऊचे पहाड़ों को और ग्लेशियर को पार करते हुवे हम रूपकुंड के काफी नजदीक पहुँच चुके थे की अचानक बर्फ़बारी शुरू हो गयी। ऐसी बर्फबारी मैंने अपनी अभी तक की जिंदगी में पहली बार देखी थी। ये मेरे लिए एक नया अनुभव था। दिल में ख़ुशी भी थी और थोडा डर भी था क्यूँ की रूपकुंड से वापस लोटने के लिए तीखी ढलान थी और बर्फ में फिसलना मतलब सीधे गहरी खाई में गिरना। रूपकुंड में तेज हवाओं के साथ बहुत बर्फबारी हो रही थी। हम सभी साथियों ने बर्फ का खूब आनंद लिया और रूपकुंड के सौंदर्य को खूब निहारा। फोटो शूट और विडियो शूट के साथ पूरे रूपकुंड के दृश्यों को अपनी यादों में कैद कर लिया। कुछ देर रूपकुंड रुकने के बाद हमने वापस लौटने का फैसला किया। लगभग पूरे रास्ते हमने बर्फबारी और बारिश का आनंद लिया और तकरीबन 6 बजे हम वापस पातुर नचैणियां पहुँच गए थे। फटाफट राजू ने रात के खाने का इंतजाम किया और फिर हमने रात का खाना खाकर सो गए क्यूँ की अगले दिन हमें वापस वाण गाँव तक पैदल सफ़र तय करना था।
सुबह जब हमारी नींद खुली तो बारिश और तेज हवा चल रही थी। राजू ने सबको जगाया और फटाफट नास्ता बनाकर कर सबको चलने के लिए कहा लेकिन थकावट के कारण बारिश में चलने का किसी का भी मन नहीं था। लेकिन समय पर वापस लौटना भी जरूरी था। हम सभी ने फटाफट नास्ता किया और सामान पैक करके तकरीबन 9 बजे पातुर नचैणियां से वाण की और निकल पड़े। वापस लौटने के लिए गैरोली पातल का रास्ता चुना। ऊंचे ऊचें पहाड़ों में ठंडी ठंडी हवाओं का आनंद लेते हम वापस बेदनी बुग्याल पहुंचे जहाँ पर हमने विश्राम किया और बेदनी में बने कुंड का भ्रमण किया।
पौराणिक मान्यता के अनुसार बेदनी में वेदों की रचना हवी थी और वेदों को लिखने के लिए जब श्याही कम पड गयी थी तो भगवन भ्रमा जी ने भ्रम्ताल से श्याही लेकर आये थे। बेदनी बुग्याल अपने आप में शांति का प्रतीक है और यहाँ २ छोटे छोटे शंकर भगवन के मंदिर भी बने है। नंदा राजजात यात्रा के दौरान बेदनी कुंड से पुजारी जल लेकर आते है और आगे की यात्रा का शुभारम्भ करते है। सैकड़ों श्रद्धालु यात्रा के दौरान यहाँ पर विश्राम करते है और भगवन शंकर जी की पूजा अर्चना करते है।
तकरीबन 11 बजे हमने बेंदिनी से गैरोली पातल के लिए प्रस्तान किया और तकरीबन 1 से 2 बजे की बीच में हम गैरोली पातल पहुँच गए थे। रास्ते में हमें बहुत यात्री मिले जो रूपकुंड जा रहे थे। हम लोगों ने एक दुसरे का हाल चाल पुछा और आगे के सफ़र के लिए बधाई दी और फिर अपने अपने रास्ते चल दिए। गैरोली पातल में थोड़ी देर आराम करने के बाद फिर हम आगे के सफ़र के लिए निकल पड़े। गैरोली से धीरे धीरे आगे बढ़ते हम पहाड़ी की तलहटी पर पहंचे जहाँ पर नील गंगा नदी बह रही थी। नील गंगा बरसात के मौसम में अपने उफान पर रहती है। नदी में बहुत पानी था। मन कर रहा था नदी में दुबकी लगा कर अपनी थकान मिटा लें लेकिन पानी बहुत ज्यादा होने के कारण हिम्मत नहीं बन पाई। हमारे बड़े बुजुर्ग कह गए है पहाड़, नदी, आग से खेल नहीं करना चाहिए।
नदी के ऊपर बने पुल में थोड़ी देर आराम करने के बाद आगे के सफ़र के लिए हम निकल पड़े। नील गंगा से वाण गाँव तक तकरीबन 400 मीटर चढ़ाई थी। बहुत लम्बा सफ़र हमने तय कर लिया था तो 400 मीटर आखिर क्या था हमारे लिए। घर वापस आने की खुशी हमारे कदमों को तेजी से उस चढ़ाई पर चढ़ने में मदद कर रही थी। तकरीबन 3 से 4 बजे हम वाण गाँव पहुँच गए थे। वाण गाँव की सुन्दरता अपने आप में देखने योग्य थी। पूरे गाँव में सभी लोग चोलाई की खेती (रोटी और लड्डू बनाने के काम में आने वाला अनाज) करते है। चोलाई लोकल मार्किट में 5000 रूपये क्विंटल बिकता है। वाण गाँव से मार्किट में पहुँच कर हमने गरमा गर्म चाय का आनंद लिया और वहां हमारी मुलाकात हीरा बुग्याली जी से हवी। हीरा बुग्याली जी का व्यक्तित्व पूरे इलाके में बहुत बड़ा है। हीरा बुग्याली जी ने हमें अपनी गाडी से वाण गाँव से कुलिंग गाँव तक छोड़ा क्यूँ कि कुलिंग में हमारी गाडी खड़ी थी। अपनी गाडी में हमने अपना सारा सामान रखा और वापस लोहाजुंग के लिए निकल पड़े। लोहाजुंग में बक्तावर ने हमारे लिए भोजन की व्यवस्ता की थी। दाल चावल खाकर हमारा मन त्रप्त हो गया था क्यूँ की काफी दिनों से हमने दाल और चावल नहीं खाए थे।
सभी का धन्यवाद करके हम तकरीबन 5 बजे लोहाजुंग से दिल्ली के लिए निकल पड़े और अगले दिन वापस अपनी कर्मभूमि दिल्ली पहुँच गए।
अगर कोई भी रूपकुंड या ब्रह्माताल जाना चाहता है तो आप मुझसे मेरी ईमेल ID पर संपर्क कर सकते है। मै आपको वहां लोकल गाइड और होम स्टे के लिए मदद कर सकता हूँ (manojnegi88@gmail.com)
लोहाजुंग - > कुलिंग - > यहाँ से दो रास्ते रूपकुंड के लिए जाते है:
लोहाजुंग -> (6KM) कुलिंग -> (9KM) वांण गांव -> (3KM) गैरोली पातल -> (3KM) बेंदिनी बुग्याल (12000 फुट) --> (2KM) घोडा लोटानी ---> (2KM) पातुर नचैणियां --> (2KM) कैलो विनायक --> (2KM) भखुवाबासा --> (3.4KM) रूपकुंड
लोहाजुंग --> (6KM) कुलिंग ---> (4KM) दिदना गाँव --> (2KM) तोल पानी --> (2KM) आली बुग्याल --> (6KM) बेंदिनी बुग्याल (12000 फुट) ---> (2KM) घोडा लोटानी --> (2KM) पातुर नचैणियां --> (2KM) कैलो विनायक - --> (2KM) भखुवाबासा ---> (3.4KM) रूपकुंड
ट्रेकिंग के लिए उपयोगी सामान
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मनोज सिंह नेगी
ईमेल: manojnegi88@gmail.com
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आइये ले चलते है आपको उत्तराखंड के एक और देवीय और प्रयटक स्थल पर जिसका नाम है रूपकुंड। चमोली जिले के सीमांत देवाल विकासखंड में समुद्रतल से 16499 फीट की ऊंचाई पर स्थित प्रसिद्ध नंदादेवी राजजात मार्ग पर नंदाघुंघटी और त्रिशूली जैसे विशाल हिम शिखरों की छांव में स्थित है मनोरम रूपकुंड झील।
पौराणिक मान्यता के अनुसार अनुपम सुंदरी हिमालय (हिमवंत) पुत्री देवी नंदा (पार्वती) जब शिव के साथ रोती-बिलखती कैलास जा रही थीं, तब मार्ग में एक स्थान पर उन्हें प्यास लगी। नंदा के सूखे होंठ देख शिवजी ने चारों ओर नजरें दौड़ाईं, लेकिन कहीं भी पानी नहीं था। तब शिवजी ने अपना त्रिशूल धरती पर मारा, जिससे वहां पानी का धारा फूट पड़ी। नंदा जब प्यास बुझा रही थीं, तब उन्हें पानी में एक रूपवती स्त्री का प्रतिबिंब नजर आया, जो शिव के साथ एकाकार था। नंदा को चौंकते देख शिव उनके अंतर्मन के द्वंद्व को समझ गए और बोले, यह तुम्हारा ही रूप है। तब से ही यह कुंड रूपकुंड, शिव अर्धनारीश्वर और यहां के पर्वत त्रिशूल व नंदाघुंघटी कहलाए। जबकि, यहां से निकलने वाली जलधारा का नाम नंदाकिनी पड़ा।
अब हमारा सफ़र शुरू होता है द्वारका दिल्ली से। काफी दिनों से हम दोस्तों (मनोज पालीवाल, महिपाल सिंह पुंडीर, मनोज सिंह नेगी और अर्जुन सिंह नेगी) ने रूपकुंड जाने की पूरी प्लानिंग बना ली थी। रूपकुंड जाने की पूरी जानकारी हमें श्री शंकर खुलबे जी ने पहले ही दे दी थी और हमें ट्रेकिंग टेंट श्री धन सिंह मेहता जी ने दे दिया था। और आखिर वो समय आ गया था जब हम दिल्ली से रूपकुंड के लिए निकले। 25 सितम्बर बुधवार की रात्रि 10 बजे हम दिल्ली से रूपकुंड के लिए लिए निकले और अगले 26 सितम्बर बृहस्पतिवार को शाम 3 बजे लोहाजुंग से होते हुवे कुलिंग पहुँचे। लोहाजुंग में हमारी मुलकात श्री पान सिंह जी से हुई, पान सिंह जी को हमने पहले ही फ़ोन करके अवगत करवा दिया था की हम साथी रूपकुंड ट्रेक पर आ रहे है। पान सिंह जी ने हमारा स्वागत लोहाजुंग में बहुत गर्म जोशी से किया और अपने भांजे बक्तावर को हमारे साथ उनके गाँव दिदना के लिए भेज दिया। कुलिंग से दिदना तक का सफ़र काफी थकावट भरा था लेकिन सफ़र के दौरान बक्तावर ने हमें रूपकुंड और उसके बीच में आने वाले जगहों के बारे में रोचक जानकारी दी जिससे दिदना तक चढ़ाई का सफ़र का पता नहीं चला। 5 किलोमीटर तक का सफ़र बक्तावर के साथ बहुत यादगार रहा। शाम करीब 6 बजे हम दिदना गाँव पहुचे जहाँ हमारी मुलाकात राजू ( पान सिंह जी का लड़का और हमारा गाइड) और उसकी माता जी से हुवी। घर पहुचते ही राजू ने हमें शुद्ध पहाड़ों से निकला हुवा ठंडा पानी पिलाया जिससे हमारी पूरी थकावट पलभर में ही मिट गयी। उसके थोड़ी देर बाद माता जी ने गरमा गर्म चाय पिला कर थोड़े से बचे कुचे दर्द और थकावट को भी गायब कर दिया। थोड़ी देर आराम करने के बाद रात्रि करीब 8 बजे माता जी ने गरमा गर्म खाना परोसा (रोटी, शब्जी और दाल)। हम सभी ने आवश्यकता से से अधिक खाना खाया क्यूँ की खाना बहुत स्वदिस्ट था। हँसी मजाक के साथ वो शाम हमारी बहुत शानदार गुजरी और हमें लगा ही नहीं की हम राजू के परिवार से पहली बार मिल रहे हैं। रात करीब 10 बजे हम सभी अपने अपने बिस्तर पर चले गए क्यूँ कि अगले दिन का सफ़र बहुत लम्बा था।
27 सितम्बर शुक्रवार को सुबह राजू ने हमें जगाया और हमें चाय हमारे बिस्तर पर ही दे दी। चाय पीकर जब हम कमरे से बाहर निकले तो बाहर का नजारा देखकर हम बहुत खुश हुवे। चारों तरफ हरियाली, ऊंचे ऊंचे पहाड़ और बादलों से घिरा दिदना गाँव वाकई में बहुत सुन्दर लग रहा था। करीब 8 बजे हमने नास्ता किया और 9 बजे हम अपने आगे के सफ़र के लिए निकल पड़े। दिदना गाँव से लगभग 2 किलोमीटर चलने के बाद हम “तोल पानी” पहुचें। पौराणिक मान्यता के अनुसार नंदा राजजात यात्रा के दौरान पानी की कमी होने की वजह से वहां पानी को तोल तोल कर दिया गया था इसलिए उस जगह का नाम तोल पानी पड़ा। थोड़ी देर आराम करने के बाद हम आगे के सफ़र के लिए निकले। “तोल पानी” से आगे करीब 2 किलोमीटर चलते बुरांश, बांज के जंगलों से होते हुवे, अनेकों प्रकार के पेड़ पौधे देखते और एकदम खड़ी चढ़ाई चढ़ते चढ़ते हम तकीबन 12 बजे आली टॉप पर पहुचें। आली टॉप से दिदना गाँव, लोहाजुंग, कुलिंग और बहुत से दूर दराज के जगह एक दाम साफ़ दिखाई दे रहे थे।
धीरे धीरे चलते-चलते, आराम करते और खाते पीते हम हम आली टॉप से “आली बुग्याल” पहुचें। “आली बुग्याल” पहुँचने से पहले ही हलकी फुलकी बारिश शुरू हो गयी थी लेकिन “आली बुग्याल” पहुँचते ही जैसे हुमारी पूरी थकान गायब हो गई हो, चारों तरफ घास के बड़े बड़े मैदान, जहाँ तक हमारी नजर गयी घास के मैदान ही नजर आ रहे थे। “आली बुग्याल” एशिया का सबसे लम्बा बुग्याल है। आली बुग्याल में हमें कई जानवर देखने को मिले जैसे घोड़े (बड़े बड़े बालों वाले), गाय, भेंस, बकरी, भेड़ और कई अन्य। नजदीकी गाँव के चरवाहे अकसर अपने अपने जानवरों को बुग्यालों में चराने के लिए लेकर आते हैं। आली बुग्याल के आखिरी छोर पर हम सभी ने दिन का भोजन किया, जो कि राजू अपने घर से बना कर लाया था। आलू के पराठों के साथ अचार और गरमा ग्राम चाय वाकई बहुत मजेदार था।
तकरीबन 3 बजे हम “आली बुग्याल” से “बेंदिनी बुग्याल” की तरफ चल पड़े और 5 बजे के करीब हम बेंदिनी बुग्याल पहुँच गए थे। बेंदिनी बुग्याल 12000 फुट की ऊचाई पर है जहाँ पर वेदों को लिखा गया था।
बेंदिनी बुग्याल (12000 फुट) से आगे का रास्ता चढ़ाई वाला था जिसको पार करते ह्वुए हम घोडा लौटानी पहुचें। “घोडा लौटानी” के बारे में कहा जाता है कि पहले घोड़े, खच्चर वहीँ तक जा पाते थे क्यूँ की आगे का रास्ता बहुत दुर्गम भरा था। लेकिन अब घोड़े और खच्चर भखुवाबासा तक जाते है। घोडा लोटानी से आगे 2 किलोमीटर का रास्ता एकदम सरल था जिसको पार करते हम “पातुर नचैणियां” पहुचें। करीब 7 बजे हम “पातुर नचैणियां” पहुचें और वहां फारेस्ट विभाग वालों के हट में हमने अपना डेरा जमाया। पातुर नचैणियां पहुचंते ही राजू ने खाने का इंतजाम किया और तकरीबन 9 बजे हमने रात का खाना खाया और फिर अपने अपने स्लीपिंग बैग में सो गए।
28 सितम्बर शनिवार को सुबह उठने के बाद हमने “पातुर नचैणियां” का भ्रमण किया और सुबह का नास्ता (दलिया और अंडे) करने के बाद आगे का सफ़र के लिए तैयार हो गए। दुर्गम रास्ते और ऊंची चढ़ाई को पार करते हुवे हम कैलो विनायक मंदिर पहुंचे। कैलो विनायक श्री गणेश जी का दूसरा नाम है। भगवन श्री गणेश जी का आशीर्वाद लेने के बाद हमने आगे का सफ़र शुरू किया। कैलो विनायक से आगे का रास्ता एकदम सरल और सीधा था। रास्ते में हमने भरड (हिरण की प्रजाति) का एक झुण्ड देखा। भरड दिखने में बहुत सुन्दर होते है और ये प्रजाति ऊंची और ठंडी जगहों पर ही पाए जाते है। लगभग 2 किलोमीटर चलने के बाद हम भखुवाबासा पहुंचे। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भखुवाबासा में माता पार्वती ने अपने शेर को वहां पर छोड़ दिया था क्यूँ की उनको आगे का सफ़र शंकर भगवन के साथ अकेले ही तय करना था। भखुवाबासा में वनविभाग वालों के हट बने हुवे जहाँ पर प्रयटक विश्राम कर सकते है और साथ ही अपना टेंट भी लगा सकते है।
भखुवाबासा में थोड़ी देर आराम करने के बाद हम रूपकुंड की तरफ निकल पड़े। ऊंचे ऊचे पहाड़ों को और ग्लेशियर को पार करते हुवे हम रूपकुंड के काफी नजदीक पहुँच चुके थे की अचानक बर्फ़बारी शुरू हो गयी। ऐसी बर्फबारी मैंने अपनी अभी तक की जिंदगी में पहली बार देखी थी। ये मेरे लिए एक नया अनुभव था। दिल में ख़ुशी भी थी और थोडा डर भी था क्यूँ की रूपकुंड से वापस लोटने के लिए तीखी ढलान थी और बर्फ में फिसलना मतलब सीधे गहरी खाई में गिरना। रूपकुंड में तेज हवाओं के साथ बहुत बर्फबारी हो रही थी। हम सभी साथियों ने बर्फ का खूब आनंद लिया और रूपकुंड के सौंदर्य को खूब निहारा। फोटो शूट और विडियो शूट के साथ पूरे रूपकुंड के दृश्यों को अपनी यादों में कैद कर लिया। कुछ देर रूपकुंड रुकने के बाद हमने वापस लौटने का फैसला किया। लगभग पूरे रास्ते हमने बर्फबारी और बारिश का आनंद लिया और तकरीबन 6 बजे हम वापस पातुर नचैणियां पहुँच गए थे। फटाफट राजू ने रात के खाने का इंतजाम किया और फिर हमने रात का खाना खाकर सो गए क्यूँ की अगले दिन हमें वापस वाण गाँव तक पैदल सफ़र तय करना था।
सुबह जब हमारी नींद खुली तो बारिश और तेज हवा चल रही थी। राजू ने सबको जगाया और फटाफट नास्ता बनाकर कर सबको चलने के लिए कहा लेकिन थकावट के कारण बारिश में चलने का किसी का भी मन नहीं था। लेकिन समय पर वापस लौटना भी जरूरी था। हम सभी ने फटाफट नास्ता किया और सामान पैक करके तकरीबन 9 बजे पातुर नचैणियां से वाण की और निकल पड़े। वापस लौटने के लिए गैरोली पातल का रास्ता चुना। ऊंचे ऊचें पहाड़ों में ठंडी ठंडी हवाओं का आनंद लेते हम वापस बेदनी बुग्याल पहुंचे जहाँ पर हमने विश्राम किया और बेदनी में बने कुंड का भ्रमण किया।
पौराणिक मान्यता के अनुसार बेदनी में वेदों की रचना हवी थी और वेदों को लिखने के लिए जब श्याही कम पड गयी थी तो भगवन भ्रमा जी ने भ्रम्ताल से श्याही लेकर आये थे। बेदनी बुग्याल अपने आप में शांति का प्रतीक है और यहाँ २ छोटे छोटे शंकर भगवन के मंदिर भी बने है। नंदा राजजात यात्रा के दौरान बेदनी कुंड से पुजारी जल लेकर आते है और आगे की यात्रा का शुभारम्भ करते है। सैकड़ों श्रद्धालु यात्रा के दौरान यहाँ पर विश्राम करते है और भगवन शंकर जी की पूजा अर्चना करते है।
तकरीबन 11 बजे हमने बेंदिनी से गैरोली पातल के लिए प्रस्तान किया और तकरीबन 1 से 2 बजे की बीच में हम गैरोली पातल पहुँच गए थे। रास्ते में हमें बहुत यात्री मिले जो रूपकुंड जा रहे थे। हम लोगों ने एक दुसरे का हाल चाल पुछा और आगे के सफ़र के लिए बधाई दी और फिर अपने अपने रास्ते चल दिए। गैरोली पातल में थोड़ी देर आराम करने के बाद फिर हम आगे के सफ़र के लिए निकल पड़े। गैरोली से धीरे धीरे आगे बढ़ते हम पहाड़ी की तलहटी पर पहंचे जहाँ पर नील गंगा नदी बह रही थी। नील गंगा बरसात के मौसम में अपने उफान पर रहती है। नदी में बहुत पानी था। मन कर रहा था नदी में दुबकी लगा कर अपनी थकान मिटा लें लेकिन पानी बहुत ज्यादा होने के कारण हिम्मत नहीं बन पाई। हमारे बड़े बुजुर्ग कह गए है पहाड़, नदी, आग से खेल नहीं करना चाहिए।
नदी के ऊपर बने पुल में थोड़ी देर आराम करने के बाद आगे के सफ़र के लिए हम निकल पड़े। नील गंगा से वाण गाँव तक तकरीबन 400 मीटर चढ़ाई थी। बहुत लम्बा सफ़र हमने तय कर लिया था तो 400 मीटर आखिर क्या था हमारे लिए। घर वापस आने की खुशी हमारे कदमों को तेजी से उस चढ़ाई पर चढ़ने में मदद कर रही थी। तकरीबन 3 से 4 बजे हम वाण गाँव पहुँच गए थे। वाण गाँव की सुन्दरता अपने आप में देखने योग्य थी। पूरे गाँव में सभी लोग चोलाई की खेती (रोटी और लड्डू बनाने के काम में आने वाला अनाज) करते है। चोलाई लोकल मार्किट में 5000 रूपये क्विंटल बिकता है। वाण गाँव से मार्किट में पहुँच कर हमने गरमा गर्म चाय का आनंद लिया और वहां हमारी मुलाकात हीरा बुग्याली जी से हवी। हीरा बुग्याली जी का व्यक्तित्व पूरे इलाके में बहुत बड़ा है। हीरा बुग्याली जी ने हमें अपनी गाडी से वाण गाँव से कुलिंग गाँव तक छोड़ा क्यूँ कि कुलिंग में हमारी गाडी खड़ी थी। अपनी गाडी में हमने अपना सारा सामान रखा और वापस लोहाजुंग के लिए निकल पड़े। लोहाजुंग में बक्तावर ने हमारे लिए भोजन की व्यवस्ता की थी। दाल चावल खाकर हमारा मन त्रप्त हो गया था क्यूँ की काफी दिनों से हमने दाल और चावल नहीं खाए थे।
सभी का धन्यवाद करके हम तकरीबन 5 बजे लोहाजुंग से दिल्ली के लिए निकल पड़े और अगले दिन वापस अपनी कर्मभूमि दिल्ली पहुँच गए।
अगर कोई भी रूपकुंड या ब्रह्माताल जाना चाहता है तो आप मुझसे मेरी ईमेल ID पर संपर्क कर सकते है। मै आपको वहां लोकल गाइड और होम स्टे के लिए मदद कर सकता हूँ (manojnegi88@gmail.com)
लोहाजुंग - > कुलिंग - > यहाँ से दो रास्ते रूपकुंड के लिए जाते है:
लोहाजुंग -> (6KM) कुलिंग -> (9KM) वांण गांव -> (3KM) गैरोली पातल -> (3KM) बेंदिनी बुग्याल (12000 फुट) --> (2KM) घोडा लोटानी ---> (2KM) पातुर नचैणियां --> (2KM) कैलो विनायक --> (2KM) भखुवाबासा --> (3.4KM) रूपकुंड
लोहाजुंग --> (6KM) कुलिंग ---> (4KM) दिदना गाँव --> (2KM) तोल पानी --> (2KM) आली बुग्याल --> (6KM) बेंदिनी बुग्याल (12000 फुट) ---> (2KM) घोडा लोटानी --> (2KM) पातुर नचैणियां --> (2KM) कैलो विनायक - --> (2KM) भखुवाबासा ---> (3.4KM) रूपकुंड
ट्रेकिंग के लिए उपयोगी सामान
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- Backpack & rain cover ((50 - 60 ltr)
- Day pack + rain cover (20 - 30 ltr)
- Waterproof trekking shoes
- Floaters or slippers
- 2 pairs of dry fit trekking pants
- 3-4 dry fit tees with long sleeves
- 2 fleece shirts with long sleeves
- 1 waterproof, wind-proof jacket
- 2 pairs thermals (uppers and lowers)
- 3 pairs trekking/sports socks
- 1 pairs woollen socks (Only for sleeping in)
- Waterproof gloves
- Poncho
- Sleeping bag liner
- Cold cream
- Lip balm
- 1 Walking stick
- Head torch
- Power bank
- Water bottle
- Monkey Cap
- Sun cap
- Sunglasses
- Extra plastic bags
- MEDICAL KIT for High Attitute
- Energy bars, dry fruits, electral/ors
- butane gas cylinder + Hans Butane Gas Canister (To Cook Maggie, Omlate and Daliya)
- ID card with photo (Driving license, Voter’s ID) with photocopy
मनोज सिंह नेगी
ईमेल: manojnegi88@gmail.com
Comments
Thank you Manoj Ji for introducing us with such a beautiful place, I will definitely go there and to reach out you for any kind of help.